काशी माहात्म्य
काश्चने प्रकाश्यते पाहामाशी
अलौकिक ज्ञान से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को आलोकित करने वाली काशी, साक्षात् भगवान् शिव के विग्रह स्वरूप में विराजमान संसार की प्राचीनतम नगरी काशी, विश्वकर्मा की सर्वश्रेष्ठ रचना काशी, जिसे भगवान शिव ने स्वयं आनन्दकानन तदनन्तर अविमुक्त और अविनाशी कहा।
पतित पावनी माँ गंगा के तट पर वरुणा और असि नदियों के मध्य स्थित होने के कारण इसे सारा विश्व वाराणसी के नाम से जानता है। इसको पूर्णतीर्थ, तपःस्थली, काशिका, अविमुक्त, आनन्दवन, अपुनर्भवभूमि, रुद्रवास तथा महाश्मशान आदि नामों से भी जाना जाता है।
विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में काशी का उल्लेख मिलता है।
पुराणों के अनुसार यह आद्य वैष्णव स्थल है। पहले यह भगवान विष्णु (माधव) की पुरी थी, जहाँ श्रीहरि के आनंदाश्रु गिरने से बिंदु सरोवर बन गया और प्रभु यहाँ बिंदुमाधव के नाम से प्रतिष्ठित हुए।
मत्स्य पुराण में वर्णन आता है कि काशी ब्रह्मा जी का परम स्थान, ब्रह्मा द्वारा अध्यासित, सदासेवित और रक्षित है। स्कन्द पुराण में काशी को भूमि का खण्ड न कहकर ब्रह्म रसायन कहा गया है।
साक्षात् भगवान विश्वेश्वर ने काशीरूपी ब्रह्मरसायन को त्रिलोक में सबसे प्रिय परम सौख्य की भूमि कहा है। स्कन्द पुराण में ही वर्णन आता है कि यह काशीपुरी त्रैलोक्य से न्यारी एवं सनातन सत्य स्वरूपा है। काशी भगवान शंकर के त्रिशूल पर विराजित है।
ऋग्वेद, अथर्ववेद, शतपथ ब्राह्मण, गोपथ ब्राह्मण में काशि शब्द तथा बृहदारण्यकोपनिषद्, वाल्मीकि रामायण, महाभारत, अष्टाध्यायी सहित सभी ग्रन्थों में काशी की महत्ता से सम्बन्धित उद्धरण मिलते हैं।
महर्षि व्यास ने काशी को त्रैलोक्य की नाभि बताते हुए कहा है कि सम्पूर्ण धरित्री की नाभिभूता शुभोदया, इस काशी का प्रलयकाल में भी लोप नहीं होता है।
लिंग पुराण के अनुसार काशी का वैशिष्ट्य प्रतिपादित करते हुए साक्षात् महादेव का कथन है कि वाराणसी मेरा गूढतम क्षेत्र है और सर्वदा प्राणियों के मोक्ष का कारण है।
काशी सदैव अध्यात्म, संस्कृति और शिक्षा का केंद्र रही है। भगवान बुद्ध को ज्ञान तो बोध गया में मिला, पर धर्म चक्र प्रवर्तन के लिए वह ज्ञान और अध्यात्म के केन्द्र काशी के पास ऋषि पत्तन (सारनाथ) आते हैं।
वेदांत के सबसे बड़े प्रवक्ता आदिगुरु शंकराचार्य केरल प्रदेश के कालड़ी नामक स्थान से काशी आते हैं। महान संत नानक और मध्यकाल में राजकुमार दाराशिकोह काशी आते हैं।
काशी में कबीर के स्वर में निर्गुण की गूंज होती है, तो राम कथा के माध्यम से तुलसी सगुण और निर्गुण के बीच समन्वय स्थापित करने का काम करते हैं। जिसे काशी ने स्वीकार किया, उसे संसार ने स्वीकार किया।
भारत रत्न पंडित महामना मदन मोहन मालवीय ने भी प्रयाग से आकर वाराणसी में ही काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की। विश्व में ब्रह्मोदय (संवाद) का सबसे प्रतिष्ठित केंद्र रहा है काशी। यहाँ संस्कृत पाठशालाओं में शास्त्रार्थ की प्राचीन परम्परा आज भी जीवंत है।
काशी हिन्दू सनातन परम्परा के साथ-साथ अन्य हिन्दू पांथिक परम्पराओं, मान्यताओं को भी अपने आप में आत्मसात किये हुए है।
काशी यूं ही सम्पूर्ण नगरी नहीं है।
भगवान शिव की नगरी काशी ‘सर्वधर्म समभाव का जीवंत उदाहरण है तो इसलिए कि यह सभी धर्मावलंबियों के लिए आकर्षण का केन्द्र रही है।
काशी और कबीर
काशी और तुलसीदास
युग प्रवर्तक तुलसीदासजी का काशी से अत्यधिक लगाव रहा है। अयोध्या एवं चित्रकूट के अतिरिक्त जीवन के मूल्यवान क्षण उन्होंने काशी में ही व्यतीत किये थे तथा उनके द्वारा श्री काशी विश्वनाथ मंदिर के शिवलिंग को साक्षी मानकर अपने रामचरित मानस ग्रंथ को काशी विद्वत् मण्डली के समक्ष प्रस्तुत किये जाने का प्रसंग मिलता है।
बाह्य आक्रान्ताओं और मुगलों के शासनकाल में जब सभी को धर्म परिवर्तन के लिए बाध्य किया जाने लगा, तब निर्भीकतापूर्वक रामचरित मानस एवं रामलीला मंचन के माध्यम से इसी काशी से तुलसीदास ने राजा रामचन्द्र जी की जय हो का उद्घोष गांव-गांव तक पहुँचाया।
काशी और संत शिरोमणि रविदास
काशी में गूंजते हैं वैदिक मंत्र:
अयोध्या-मथुरा माया काशी कांचीत्ववन्तिका।
पुरी द्वारावती चैव सप्तैते मोक्षदायिकाः।।
अर्थात अयोध्या, मथुरा, माया (हरिद्वार), काशी (वाराणसी), कांची, अवन्तिका (उज्जयिनी) और द्वारिका धाम सात मोक्षपुरियाँ हैं, परंतु अन्त में काशी वास मोक्ष प्रदायक माना गया है।
अन्यानि मुक्तिक्षेत्राणि काशीप्राप्तिकराणि च।
कार्शी प्राप्य विमुच्येत नान्यथा तीर्थकोटिभिः।
-(स्कन्द पुराण 4/6/7)(वाराणसी का संक्षिप्त सांस्कृतिक महत्व)
आज भी असुर निकंदन श्री भगवान शंकर जी के त्रिशूल पर बसी इस प्राचीनतम नगरी का जब विवेचन होने लगता है। तब काशी के सांस्कृतिक महत्व का विशेष वर्णन किया जाता है।
भारतीय आचार-विचार, ज्ञान-धर्म, संस्कार, दर्शन सभी विषयों का ज्ञान काशी से प्राप्त होता है। काशी का ज्ञान सारे देश के लिए नैतिक तौर पर मान्य होता है। हमारे देश ही नहीं अपितु अनेक देशों के विद्वानों को अपने मत की शुद्धता प्रमाणित करने के लिए काशी आना पडा था।
हमारे काशी में माँ अन्नपूर्णा के दरबार में कोई भी व्यक्ति भूखा नहीं सोता। इस सम्बन्ध में एक उक्ति भी प्रसिद्ध है कि जिन्हें कहीं भी ठौर ठिकाना नहीं मिलता उनको काशी में शरण मिल जाती है।
काशी में मृत्यु को भी मंगल माना गया है, 'मरणं मंगलं यत्र' देवताओं की नगरी काशी भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार की समृद्धि एवं महिमा का एक व्यंजक है। जिस प्रकार सम्पूर्ण ब्रह्मण्ड संक्षिप्त रूप में शरीर या पिण्ड में विद्यमान रहती है। उसी प्रकार सारे भूमण्डल का सारतत्व भारतवर्ष में एवं मुख्य रूप से काशी में विद्यमान है।
वियना विश्वविद्यालय के इतिहास और राजनीतिशास्त्र के प्राध्यापक डॉ. हौबर्ट फौन विक्सी ने कहा था- "इतिहास होने के नाते मैं यह कह सकने में समर्थ हूँ कि भारतीय संस्कृति में जन्म लेने वाले काशी वासी ऐसे दिव्य लोक में स्थित है। जिनके प्राचीन अथवा अर्वाचीन गर्व-गौरव की अनुभूति होती है और विश्व मे किसी भी जगह से काशी की तुलना नहीं कर सकते।
काशी की इस पावन धरा ने समय-समय पर ऐसे अनेक संत महापुरुषों को उत्पन्न किया है, जिन्होंने मानव जीवन को निष्कंटक बनाते हुए जीवन पथ को सरल, संयमित एवं उच्च आदर्शों से युक्त बनाया है। ऐसे संतों में कबीर दास का वर्णन अग्रिम पंक्तियों में आता है।
साक्षात् भगवान विश्वेश्वर ने काशीरूपी ब्रह्मरसायन को त्रिलोक में सबसे प्रिय परम सौख्य की भूमि कहा है। स्कन्द पुराण में ही वर्णन आता है कि यह काशीपुरी त्रैलोक्य से न्यारी एवं सनातन सत्य स्वरूपा है। काशी भगवान शंकर के त्रिशूल पर विराजित है।
ऋग्वेद, अथर्ववेद, शतपथ ब्राह्मण, गोपथ ब्राह्मण में काशि शब्द तथा बृहदारण्यकोपनिषद्, वाल्मीकि रामायण, महाभारत, अष्टाध्यायी सहित सभी ग्रन्थों में काशी की महत्ता से सम्बन्धित उद्धरण मिलते हैं।
महर्षि व्यास ने काशी को त्रैलोक्य की नाभि बताते हुए कहा है कि सम्पूर्ण धरित्री की नाभिभूता शुभोदया, इस काशी का प्रलयकाल में भी लोप नहीं होता है।
लिंग पुराण के अनुसार काशी का वैशिष्ट्य प्रतिपादित करते हुए साक्षात् महादेव का कथन है कि वाराणसी मेरा गूढतम क्षेत्र है और सर्वदा प्राणियों के मोक्ष का कारण है।
काशी सदैव अध्यात्म, संस्कृति और शिक्षा का केंद्र रही है। भगवान बुद्ध को ज्ञान तो बोध गया में मिला, पर धर्म चक्र प्रवर्तन के लिए वह ज्ञान और अध्यात्म के केन्द्र काशी के पास ऋषि पत्तन (सारनाथ) आते हैं।
वेदांत के सबसे बड़े प्रवक्ता आदिगुरु शंकराचार्य केरल प्रदेश के कालड़ी नामक स्थान से काशी आते हैं। महान संत नानक और मध्यकाल में राजकुमार दाराशिकोह काशी आते हैं।
काशी में कबीर के स्वर में निर्गुण की गूंज होती है, तो राम कथा के माध्यम से तुलसी सगुण और निर्गुण के बीच समन्वय स्थापित करने का काम करते हैं। जिसे काशी ने स्वीकार किया, उसे संसार ने स्वीकार किया।
काशी हिन्दू सनातन परम्परा के साथ-साथ अन्य हिन्दू पांथिक परम्पराओं, मान्यताओं को भी अपने आप में आत्मसात किये हुए है।
काशी यूं ही सम्पूर्ण नगरी नहीं है।
भगवान शिव की नगरी काशी ‘सर्वधर्म समभाव का जीवंत उदाहरण है तो इसलिए कि यह सभी धर्मावलंबियों के लिए आकर्षण का केन्द्र रही है।
काशी और तुलसीदास
काशी में गूंजते हैं वैदिक मंत्र:
अयोध्या-मथुरा माया काशी कांचीत्ववन्तिका।
पुरी द्वारावती चैव सप्तैते मोक्षदायिकाः।।
कार्शी प्राप्य विमुच्येत नान्यथा तीर्थकोटिभिः।
सन्त शिरोमणि रविदास जी को पंजाब में रविदास तथा उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान में रैदास के नाम से जाना जाता है। सन् 1376 के माघ मास की पूर्णिमा तिथि में इनका जन्म इसी काशी के गोवर्धनपुर गांव में हुआ था। अतः प्रत्येक वर्ष की माघी पूर्णिमा को इनका जन्म उत्सव पूरे देश में बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है।
काशी में बाबा विश्वनाथ का दिव्य धाम, माता अन्नपूर्णा का स्थल, कालभैरव, बड़ा गणेश, नवगौरी, नवदुर्गा, छप्पन विनायक, द्वादश आदित्य, अष्ट भैरव, चौंसठ योगिनियों के पूजन मंत्रों सहित पक्के महाल की गलियों में आज भी वैदिक मंत्रों की गूंज सुनाई देती है। यहाँ संस्कृत पाठशालाओं में शास्त्रार्थ की परम्परा अब भी जीवंत है।
इसकी उत्पत्ति के सन्दर्भ में स्कन्द पुराण के काशी खण्ड में वर्णन है कि स्कन्द माता पार्वती के साथ इस पृथ्वीलोक में विचरण करते हुए स्वयं भगवान शिव ने अपने साक्षात् विग्रह द्वारा अपनी इच्छानुसार शक्ति स्वरूपा प्रकृति एवं परमेश्वर रूप पुरुष (स्वयं) के परमानन्द स्वरूप से परमानन्द देने वाली एक ऐसी नगरी की रचना की, जहाँ माता पार्वती के साथ स्वयं भगवान् शिव प्रलयान्त तक निवास कर सकें। स्कन्द पुराण के अनुसार, काशी नगरी का स्वरूप सतयुग में त्रिशूल आकार का, त्रेता में चक्र के आकार का, द्वापर में रथ के आकार का तथा इस कलियुग में शंख के आकार का होता है।
इसीलिए काशी को भगवान् शिव के त्रिशूल पर स्थित बताया जाता है, क्योंकि इन आकृतियों का प्रथम रूप त्रिशूल ही है।
परन्तु काशी ही एक पुरी है जो साक्षात् मोक्ष देती है, जैसा कि वर्णित है कि काशी में प्राण त्यागने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता। मुक्तिदायिनी काशी की यात्रा, यहां निवास, मरण तथा दाह-संस्कार का सौभाग्य पूर्वजन्मों के पुण्यों तथा बाबा विश्वनाथ की कृपा से ही प्राप्त होता है। काशी का सान्निध्यमात्र ही पापों को विनष्ट कर देता है।
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