सम्पूर्ण कथा सहस्रार्जुन और भगवान परशुराम की
चंद्रवंश की हैहय शाखा में बहुत ही प्रतापी राजा हुए है ।।नाम है कृतवीर्य ।। कृतवीर्य यदुवंश से थे ।। यदुवँश भारत का महान क्षत्रिय वंश है, जिसमे वासुदेव श्रीकृष्ण ने भी अवतार लिया ।। चंद्रवंश में यदु नाम से बहुत ही महान राजा हुए है।। उन्ही के नाम पर यदुवंश नाम पड़ा है ।।
इन्ही महाराज यदु के पांच पुत्र हुए, जो देवताओं के समान सुंदर थे ।। इनमें सबसे ज्येष्ठपुत्र का नाम था सहस्रजीत । सहस्रजीत के पुत्र हुए शतजीत । और शतजीत के 3 प्रतापी पुत्र हुए । हैहय, हैय, और हेयवणु ।
हैहय से ही हैहय वंश चला, हैहय के उत्तराधिकारी हुए वेणुतंत्र, वेणुतंत्र के बाद कीर्ति हुए, कीर्ति के बाद संज्ञेय हुए, संज्ञेय के उत्तराधिकारी हुए महिष्मान, और महिष्मान के उत्तराधिकारी हुए भद्रश्रेणय, जो कि वाराणसी के अधिपति थे।
भद्रश्रेणय का उत्तराधिकारी दुर्दम हुए, दुर्दम का उत्तराधिकारी कनक हुआ । कनक के चार पुत्र थे, कृतवीर्य, कीर्तिवीर्य, कृतवर्मा, और कृत।
कृतवीर्य का पुत्र हुआ अर्जुन ।। इन्ही कृतवीर्य सूत अर्जुन के सहस्रभुजाएं थी, जो सहस्रार्जुन कहलाता था, यही सहस्रार्जुन परशुराम जी के हाथों मारे गए ।
एक बार कृतवीर्य ने सोमयज्ञ किया।। उनके ब्राह्मण रहे भृगुवंशी ब्राह्मण ।। सोमयज्ञ करके कृतवीर्य ने अपने ब्राह्मणो को विपुल धन तथा धान्य देकर संतुष्ठ किया ।
समय आने पर कृतवीर्य का स्वर्गवास हो गया, और कृतवीर्य के वंशजो के पास धन की कमी हो गयी ।। वे सभी हैहयवंशी राजपुत्र भार्गवों के पास याचक बनकर गए ।। कुछ ब्राह्मणो ने भय से क्षत्रियो को धन वापस कर दिया, और कुछ ने प्रेमपूर्वक ।। कुछ मोह ग्रसित ब्राह्मणो ने धन को धरती में गाड़ दिया ।
जब क्षत्रियों ने खुदाई की, तो वह गड़ा हुआ धन भी मिल गया ।। फिर तो क्षत्रियो ने क्रोध में भरकर शरण मे आये हुए भृगुवंशियो का भी अपमान किया ।। वहां जितने भी भागर्व थे, उन सबको यमलोक भेज दिया ।। यहां तक की उन बालको भी नही छोड़ा, जो गर्भ में पल रहे थे ।
उन्ही भार्गवों में एक स्त्री थी, वह बड़ी तपस्वी थी, यह तेजस्विनी महिमामयी नारी कौई और नही, बल्कि भृगु ऋषि की पुत्रवधु और च्वयन ऋषि की पत्नी थी , च्यवनप्राश ओषधि इन्ही च्वयन ऋषि की देन है ।
च्वयन ऋषि की पत्नी किसी तरह हिमालय की दुर्गम कंदरा में जा छिपी, और वहां उसने एक बहुत ही तेजस्वी बालक को जन्म दिया ।। उस बालक का नाम और्व रखा गया ।। और्व के नाम और ही अरब देश का " अरब " नाम नामकरण हुआ है ।
जब क्षत्रियो को यह पता चला, की अभी भी एक भृगुवंशी जीवित है, तो वह हिमालय की कंदरा में भी पहुंच गए ।। लेकिन उन माँ बेटो के तेज से कारण उन्हें वापस लौटना पड़ा ।
अब और्व ने ठान लिया, की वह अपने पूर्वजो की हत्या के बदले समस्त लोको का नाश करेगा ।। उस बालक ने अपने पितरो को संतुष्ठ करने के लिए भंयकर उग्र तपस्या द्वारा देवता, असुर, और मनुष्य सहित तीनो लोको को थर्रा कर रख दिया ।
तीन लोको की ऐसी दशा देखकर और्व के पितर प्रगट हो गए, और अपनी हत्या को विधि का विधान बताते हुए अपने वंसज और्व से कहा, की वह समस्त लोको और क्षत्रियो को क्षमा कर दे ।। क्षत्रियो का कोई अपराध नही है, हमारी स्वाभाविक म्रुत्यु नही थी, इस कारण स्वयं हमने ही क्षत्रियो के हाथों अपनी मृत्यु को चुना था ।
तब और्व ने कहा ..." मैं समस्त लोको के नाश की प्रतिज्ञा कर चुका हूं ।। जिसका क्रोध और प्रतिज्ञा निष्फल हो, ऐसा स्वभाव मेरा नही है ।। अगर मेरा क्रोध शांत नही हुआ, तो यह मुझे जला डालेगा ।। जिसे अपने पूर्बजों पर अत्याचार पर भी क्रोध नही आएं, वह मनुष्य धर्म अर्थ ओर काम की रक्षा में समर्थ नही होता । "
यह क्षत्रियो जब भृगुवंशियो समेत गर्भस्त शिशुओं की भी हत्या कर रहे रहे, और गर्भ से मैं वह पीड़ा सुनभी रहा था, और अनुभव भी कर रहा था ।। मेरे माता पिता , मेरा कुटुम्ब सब और भागते फिरे, लेकिन कहीं उन्हें शरण नही मिली ।। यहां तक कि मेरे कुल की स्त्रियों को भी कोई रक्षक नही मिला ।।
कई राजागण हमारी रक्षा में समर्थ थे, किंतु फिर भी उन्होंने हमारी कोई सहायता नही की ।। जो मनुष्य पाप को रोकने में समर्थ होते हुए भी, कर्मण्यहीनता धारण कर लेता है , वह भी उसी पाप में लिप्त हो जाता है ।।" " मैं गर्भ से ही इस क्रोध को लेकर प्रगट हुआ हूँ, अतः मैं आपकी कोई भी बात मानने में असमर्थ हूँ । " ऐसा कहकर और्व मौन हो गए ।।
फिर कुछ समय उन्होंने विचार किया, और अपने पितरो से कहा .... ( आंखों में आंसू थे ) , "अगर मैं समस्त लोक नही जलाऊंगा, तो स्वयं जल जाऊंगा ।" पितरो ने कहा .... तुम अपने क्रोध को जल में त्याग कर दो ।। यह समस्त लोक जल में ही प्रतिष्टित है ।। अतः अपनी तप अग्नि को जल में छोड़ दो ।
इससे सामुद्र में कभी बाढ़ नही आएगी ।। और्व ने वही किया, और्व के पुत्र हुए ऋचीक, ऋचीक के पुत्र हुए जमदग्नि , और जमदग्नि के पुत्र हुए परशुराम भगवान ।।
वही दुसरीं और हैहयवंशी कृतवीर्य की मृत्यु के बाद राजा अर्जुन गद्दी पर विराजमान हुआ । यह बहुत प्रतापी राजा था ।। यह राजा अर्जुन सहस्र भुजाओं वाला था, इतिहास में इन्हें ही #सहस्रार्जुन नाम से जाना जाता है।। राजा सहस्रार्जुन सातों द्वीपो का स्वामी था ।। राजा अर्जुन ने कई हजार वर्षों तक अत्रिपुत्र दत्तात्रेय की आराधना की, और 4 वरदान प्राप्त किये.
- सहस्र भुजाओं का वरदान
- दूसरा वरदान मांगा, की जब धरती पर अधर्म फैल जाएं, तो मैं अपने सदुपदेशों द्वारा धर्म की स्थापना कर सकूं
- पृथ्वी पर धर्मपूर्वक राज्य कर करूँ
- अनेक संग्रामो में विजय प्राप्त कर, अपने से शक्तिशाली शत्रु के हाथ मारा जाऊं
इन वरदानों को मिलने के बाद राजा अर्जुन ने सात द्वीपो वाली पूरी पृथ्वी जीत ली थी ।। उन्होंने सोने की वेदियां बनाकर पूरे विश्व मे दस हजार से अधिक यज्ञ किये ।। राजा अर्जुन की महान महिमा एवं निर्मल स्वभाव देखकड देवऋषि नारद भी कहते -: " मनुष्य योनि में पैदा हुआ कोई भी व्यक्ति राजा सहस्रार्जुन के तपस्या, दान, पांडित्य और पराक्रम की समानता नही कर सकता ।। "
राजा सहस्रार्जुन सात द्वीप का राजा अवश्य था, लेकिन वह सदैव अपनी प्रजा को आगे रखता, और खुद प्रजा के पीछे खड़ा होता । वह असल राजा खुद को नही, प्रजा को ही मानता था ।।। राज्य पशुओ को स्वयं सहस्रार्जुन पालता, और लोगो के खेतों की रक्षा की जिम्मेदारी भी राजा अर्जुन ने ही उठा रखी थी ।।
एक बार राजा अर्जुन लंका पहुंच गया, तथा मात्र 500 बाणों की लड़ाई में रावण को लंका से बंदी बना लाया, और अपनी राजधानी महिष्मति की जेल में डाल दिया । स्वयं महर्षि पुलत्स्य को रावण की जमानत करवाने आना पड़ा ।
अपने योगबल के दम पर वह जरूरत पड़ने पर वर्षा भी करवा सकता था, समुद्र का वेग रोक सकता था ।। धीरे धीरे अपने बल के मद में वह प्रकृति से भी छेड़छाड़ करने लगा, असमय ही वर्षा करवाने लगा, समुद्र का वेग रोकने लगा, इस कारण समुद्र के कई निर्दोष जीव मारे गए ।।
एक बार सहस्रार्जुन ने पृथ्वी के सभी पर्वतों तथा वनों को भस्म कर डाला ।। यहां तक उसने उस वन को भी भस्म कर दिया, जहां वरुणदेव के आत्मज का आश्रम था ।। यह आश्रम किसी औऱ का नही, बल्कि मुनिवर वसिष्ठ का आश्रम था । अपने इस आश्रम को जला हुआ देखकऱ वसिष्ठजी को बड़ा दुख हुआ, और उन्होंने राजा सहस्रार्जुन को श्राप दिया, की तुमने मेरे वन को नही छोड़ा, अब परशुराम तुम्हे नही छोड़ेंगे, और शापवश परशुरामजी ही सहस्रार्जुन की म्रुत्यु का कारण बने ।।
विचित्र बात यह है, की जिसे नारदजी स्वयं धर्म की मूर्ति कहते हो, उस सहस्रार्जुन ने इतना कठोर कर्म क्यो किया, की मुनियों के आश्रम से लेकर पूरी पृथ्वी को ही भस्म कर दिया, इसके पीछे एक कथा है .
एक बार की बात है, सूर्यदेव ब्राह्मणवेश धारण कर महाराज कार्तवीर्य के पास आये और बोले राजन् !
मैं भूखा हूँ , सन्तोष प्राप्ति के लिए आपके पास आया हूँ, मुझे अन्नादि दीजिये, मै साक्षात सूर्यदेव हूँ इसमें संदेह न करिये |
तब राजा कीर्तिवीर्य बोले- भगवन् दिवाकर ! आपको किस से सन्तोष प्राप्ति होगी में किस प्रकार का भोजन आपको दूं ? आपका उत्तर सुनकर ही में कुछ प्रबन्ध कर सकूँगा | सूर्य बोले- दानिशिरोमणि राजन् ! मुझे समस्त स्थावर जगत् प्रदान कीजिये , मैं उसी का भोजन कर सन्तोष प्राप्त करूँगा , अश्य भोजन द्वारा मेरी तृप्ति नही होगी |
राजा बोले - हे तेजस्वियों में श्रेष्ठ ! मैं मानवतेज द्वारा समस्त स्थावर जगत् को जलाने में सर्वथा असमर्थ हूं , अतः आप ही को प्रमाण करता हूँ ।
आदित्य बोले- राजन् ! मैं तुम्हारे ऊपर सन्तुष्ट हूँ , मैं तुम्हें ऐसे बाण दे रहा हूँ , जिनका कभी नाश नही होगा जो तुम्हें सब प्रकार के सुख देनेवाले होंगे । मेरे तेज से समन्वित होकर ये बाण , फेंके जाने पर प्रज्वलित हो उठेंगे । नराधिप ! मेरे तेज से संबलित होने पर वे आदेश दे देने पर मेघ और समुद्र को भी सुखा डालेंगे । और इस प्रकार पदार्थों के सूख जाने पर तो मैं उन्हें भस्म कर ही डालूंगा, तभी
हमारी वास्तविक तृप्ति होगी । ' ऐसी बाते करने के उपरान्त आदित्य ने राजा कार्तवीर्य को वे बाण प्रदान किये ।
उन बाणों को प्राप्त कर अर्जुन ने समस्त स्थावर पदार्थों को, जो विशाल भूमण्डल भर में व्याप्त थे, तथा आश्रम, ग्राम, गौओं के ठहरने के स्थान, नगर, तपोवन, सुरम्य वन, उपवन सब को भस्म कर दिया और तदनन्तर सूर्य की प्रदक्षिणा की ।
सूर्य के तेज से भस्म पृथ्वी , वृक्षों और तृणों से विहीन हो गई । इसी अवसर महर्षि वशिष्ठ ने एक नियम किया था , जिसके अनुसार दस सहस्र वर्षों तक जल में निवास कर रहे थे । महान् तेजस्वी तपोधन आपव जब अपने नियम समाप्त कर जल से उठे और बाहर आये तो उन्होंने अपने आश्रम को अर्जुन द्वारा जलाया हुआ देखा । उस समय उन्होंने राजपि कार्तवीर्य को शाप दिया , की तुम्हे अपने बल का इतना घमंड है , तो तुम्हे मेरा श्राप है, तुम ऐसे व्यक्ति से परास्त होकर मारे जाओगे, जो राजा भी नही है ।। तुम्हे अब परशुराम ही देखेंगे ।
और इसी शाप के अधीन होकर हैहयवंशियो ने परशुरामजी के पिता की हत्या हुई, और उस दंगल में फिर सहस्रार्जुन का भी वध हो गया ।
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