कल्याण सूत्र..
जैसे कोई राजा सपने में भिखारी हो जाए और दरिद्र इंद्र बन जाए । तो जागने पर उसे लाभ है या हानि, कुछ भी नहीं होती । उसी प्रकार इस संसार में भी हम सुखी और दुखी होते हैं, तो इससे वास्तव में हमारी कोई लाभ हानि नहीं होती। आत्मा सुख दुख दोनों के परे निर्लेप है.
सपनें होइ भिखारि नृपु,
रंक नाकपति होइ ||
जागें लाभु न हानि कछु,
तिमि प्रपंच जियँजोइ ||
-कल्याण सूत्र प्रार्थना
जिस समय हमारे चारो ओर विपत्ति के वादल मॅडराने लगते हैं, अन्धकार छा जाता है, कोई साथी नहीं रहता, पथ दिखाने वाला भी कोई नहीं होता, उस समय यदि हमारे अदर थोडी भी आस्तिकता रहती है तो हम बरबस' भगवान् की ओर मुडकर पुकार उठते हैं 'नाथ ! रक्षा करो, पथ दिखाओ ।' तथा हममें से बहुतों का यह अनुभव है कि पुकार लगाते ही ऐसे विचित्र ढग से हमारी रक्षा हो जाती है कि जिसकी कल्पना तक नहीं हो सकती।
ऐसा क्यों होता है ? इसीलिये कि भगवान् अपने सम्पूर्ण ज्ञान, अनन्त सामर्थ्य, अनन्त सौहार्द को लिये नित्य हमारे साथ है, उनसे हृदय का संयोग होते ही उनकी सम्पूर्ण शक्ति हमारी आवश्यकता पूर्ण करने के किये प्रकट हो जाती है। जहाँ उनकी अप्रमेय शक्ति, अपरिसीम सौहार्द को व्यक्त होने का अवसर मिला कि काले बादल बिखर गये, निर्मल प्रकाश छा गया, भार हर लेने वाले साथी आ पहुॅचे, सुविस्तीर्ण निज पथ दीख गया तथा कृतज्ञतापूर्ण हृदय से प्रभु के चरणो में सवार हम ग॑न्त॒व्य ओर चल पड़े।
किंतु प्रभु से हमारे हृदयँ का यह सयोग स्थायी नहीं हो पाता, इस क्षण के बाद हमारा जीवन भगवत् प्रार्थनामय नहीं बन जाता । अनुकूल परिस्थिति आते ही हम प्रभु को भूलने लगते हैं, 'प्रभु की प्रार्थना ऐसी अद्भुत चमत्कार की वस्तु है' यह स्मृति भी हम धीरे धीरे खो बैठते हैं ।
इनसे भिन्न कुछ ऐसे प्राणी भी हैं, जो स्वाभाविक प्राय. भगवान्की प्रार्थना करते हैं। उनमें सत् तो नहीं, पर अधिकाश कैसी प्रार्थना करते हैं, यह विचारणीय है।
संक्षेप में कहने पर उनकी प्रार्थना का रूप यह है- 'नाथ ! मुझे अमुक वस्तु दो, अनुक प्रकार से दो और अमुक समय में दो ।' अर्थात् कौन-सी वस्तु मिले, इसका निर्णय तो हम कर ही देते है। उस वस्तु की प्राप्ति किस उपाय से हो तथा किस समय हो, यह भी हम ही पहले से उन्हें सूचित कर देते हैं। मानो भगवान् में यह ज्ञान नहीं कि वे हमारी यथार्थ आवश्यक वस्तु का निर्णय कर सकें, उसकी प्राप्ति का उपाय स्थिर कर सकें तथा ठीक समय पर हमे लाकर दे सकें। होना तो यह चाहिये कि हम प्रार्थना करें कि 'नाथ' तुम्हारी जो इच्छा हो, वह मुझे दो, जिस प्रकार से देना चाहो, उस प्रकार से ही दो तथा जब देना चाहो तभी दो।" क्योंकि उनके समान , उनसे बढ़कर सर्वज्ञ तथा सर्वथा निर्मूल शुभचिन्तक हमारे लिये और कौन होगा ? किंतु यह न करके हम प्रभु के सामने अपनी क्षुद्र भावनाओ को ही रखते हैं। फिर भी यह प्रार्थना की श्रेणी मे अवश्य है, क्योंकि उस समय हमारे हृदय का प्रभु से संयोग तो होता ही है।
भगवान् ऐसी प्रार्थना से नाराज बिल्कुल नहीं होते, वे तो कभी भी किसी पर भी किसी कारण से भी नाराज होते ही नहीं, किंतु ऐसी प्रार्थनाओ का यथोचित परिणाम हमें तुरंत मिल ही जाय यह निश्चित नहीं । ये सफल भी हो सकती हैं, नहीं भी; क्योंकि प्रभु के अनन्त मङ्गलमय विधान से अविरोधी प्रार्थनाएँ ही तत्क्षण सफल होती हैं। जो प्रार्थी के लिये परिणाम में अहितकर प्रार्थनाएँ हैं, वे सफल नहीं होतीं । परम मङ्गलमय से अमङ्गल का दान किसी को मिल ही नहीं सकता।
उपर्युक्त दोनों के अतिरिक्त कुछ ऐसे मनुष्य भी होते हैं, जो भगवान् से केवल भगवान् के लिये भगवत्प्रेम के लिये ही प्रार्थना करते हैं। जगत् की किसी वस्तु की चाह उनके मनमें नहीं होती । विषयों का प्रलोभन उन्हें जरा भी नहीं सताता । उनका हृदय सहज और सतत भगवान् से जुड़ा हुआ होता है ।
इस तीसरी श्रेणी की प्रार्थना में तो प्रार्थी को कुछ सीखने की आवश्यकता नहीं होती, प्रार्थना की सारी विधिया, उसकी प्रार्थना में सहज ही वर्तमान रहती हैं। वास्तव में सच्ची और कल्याणमयी भगवत् प्रार्थना है भी यही, मानव-जीवन की सफलता भी इसी प्रार्थनामें है ।
क्षुद्र भोग के लिये भगवान् से प्रार्थना करना तो भगवान् की कृपामयता पर, उनके परम मंगलमय विधान पर अविश्वास का ही योतक है । मानो भगवान् को हमारी चिन्ता नहीं, हमारी आवश्यक वस्तु वे हमे नहीं दे रहे हैं, ऐसी भावना हमारी अन्तश्चेतना मे छिपी होती है। फिर भी हमे तो वहाँ से आगे चढना है, जहाँ हम खड़े हैं। यदि हम प्रभु पर सर्वथा निर्भर नहीं हो सकते। तो पूर्ण निर्भरता का स्वांग भरने से काम नहीं चलता ।
हमें तो अपने मानसिक धरातल के अनुरूप ही मार्ग अपनाना पड़ेगा । हममें से अधिकाश पूर्ण निर्भरता का मार्ग नहीं ग्रहण कर सकते, अतः पहले की दो प्रार्थनाओं को ही हम लोग अपनाते हैं; किंतु इन दोनों प्रार्थनाओं मे भी कुछ जानने योग्य बातें हैं, उन्हें जानकर समझकर फिर की हुई प्रार्थना बडी मूल्यवान् होती है । वह प्रार्थना जीवन को नीचे स्तर से उठाकर भगवान् के दिव्य आलोक में पहुॅचा देती है।
भक्ति सूत्र :-
मोह-राज्य से ऊपर उठने की तैयारी कीजिये।
आप मोह-राज्य से ऊपर उठना चाहते हैं, पर उसके लिये कुछ तैयारी करनी पड़ती है। उस तैयारी का पूर्वरूप क्या है? इसे सूत्ररूप से इस प्रकार समझना चाहिये।
(१) काम भर बोलने के बाद शेष समय जागने से सोने तक मशीन की तरह भगवान का नाम लेते रहे।
(२) काम की बात सोचने के बाद बाकी समय मन की वृतियाँ भी भगवान् के चरणों में लगी रहें, इसके लिये निरन्तर प्रयत्न होता रहे।
(३) जीवन निर्वाह के लिये जो चेष्टा अभी हो रही है, वह हो। पर कमाई के जो पैसे आये, उनमें बिल्कुल न हो। यह इन-इन के भरण-पोषण मे लगे, यह आग्रह न हो। दाने के एक- एक कण पर मुहर है, अन्न का जो कण जिसके पेट में जाना है, उसी के पेट में ठीक विधान के अनुसार जाता है। यह ठीक है कि स्टेज मास्टर ने जगन्नियन्ता प्रभू ने जिनके भरण- पोषण में हमें निमित्त बनाया है, उनको पहला मौका देने की हम चेष्टा करें-
चेष्टामात्र, आग्रह नहीं, पर यदि सात व्यक्ति और आ जायें तथा आठ-दस व्यक्तियों के लिये भी जो खाद्य सामग्री मामूली पोषणभरके लिये थी. उसके १७ भाग कर दिये जायें और इस प्रकार सबका पूरा भरण न होकर आधा ही भरण हो, तो भी चित्त म्लान न होकर विशेष आनन्दका अनुभव करें। ठीक समझें-उन सात व्यक्तियोंके रूपमें हिस्सा बैंटाने वाले स्वयं आप के प्रियतम प्रभु ही हैं, आपकी परीक्षा के लिये आये हैं। अवश्य ही यह भी एक लीला का ही अंग है।
(४) प्रतिकूल से प्रतिकूल अर्थात् अत्यन्त प्रतिकूल व्यवहार करनेवाले के प्रति भी द्वेष न हो; उसके हृदय में अपने प्राणनाथ प्रभु को देखकर मन-ही-मन हँस दें। बाहर से यदि थोड़ी मलिनता भी दीखे तो आपत्ति नहीं, पर थोड़ी मलिनता का स्पर्श न होने पाये।
(५) प्रत्येक घटना में अपने प्रियतम प्राणनाथ का हाथ है, इसे भीतर अनुभव करें तथा यह अन्तर्हृदय से विश्वास करें कि चाहें कोई घटना कितनी भी भयानक क्यों न हो, उसका परिणाम अनन्त मंगलसे भरा है।
(६) किसीसे भी रूखा नहीं बोलना है। इसका सुधार करके रूखा व्यवहार आवश्यक है, यह भाव मन से निकाल दें। किसी को आप सुधार सकें तो मधुर शब्दों में ही भले सुधारे पर कड़ाई मत करें। कड़ाई न करनेसे व्यवहार ठीक नहीं होगा--यह भ्रम है. इसे भी निकाल दें।
(७) मन में यह भाव दृढ करते रहें-- 'मेरे तो एक प्रभु ही हैं, और मेरा कुछ नहीं, कोई नहीं। सब प्रभु का, सब प्रभु के , इस नाते से जो निभाना हो, भले निभायें, पर स्वतन्त्र सम्बन्ध जितनी शीघ्रता से हो. मन-ही-मन तोड़ डालिये। तोडने की चेष्टा करनी ही होगी।
(८) सबसे उत्तम बात तो यह है कि प्रभु से कुछ भी न माँगे, पर जब मन किसी बात से व्याकुल हो जाय और नीचे गिरने लगे तथा माँगने की इच्छा हो जाय- कोई अभाव मालूम हो और उसकी पूर्ति की उत्कट इच्छा हो, तब सच्चे मन से, पूर्ण विश्वास के साथ उनके सामने ही मुँह खोलिये, और किसी भी दूसरे साधन का आश्रय मत लीजिये। सच मानिये, यदि उनसे मांगियेगा तो या तो माँग की पूर्ति हो जायगी, या माँग की पूर्ति हुए बिना आपके मन का दुःख मिट जायगा।
और भी बहुत सी बातें हैं; पर यदि उपर्युक्त आठ बातों को ही आप सचमुच पकड़ने की चेष्टा करें तो थोड़े ही दिनों में आपमें विलक्षण परिवर्तन हो जायगा।
🌹जय श्री सीताराम🌹
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